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बहुत याद आती है गांव की वो परंपरागत कृषि कार्य: जागरण मुर्मू…

 

सरायकेला: संजय मिश्रा । सरायकेला के विश्रामपुर गांव निवासी जागरण मुर्मू ने अपने कलम से एक हृदय स्पर्शी लेख लिखकर आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ पर हलचल मचा दी है। उन्होंने परंपरागत कृषि कार्य को अपनी बीती हुई यादों से निकाल कर गांव के सामान्य जीवन को एक बार फिर से अपने पुराने मीठे दिनों में वापस लौटने की मार्ग प्रशस्त कर डाला है। जिसमें उन्होंने यादों की मूलता को प्रदर्शित किया है।

बहुत याद आती है गांव की वो परंपरागत कृषि कार्य…..

जब सुबह की अंधेरे में मुर्गे की बांग, ढेकी की आवाज आती, सूरज की किरण आने से पहले ही बैलों को खिला-पिला कर जुंआल पर जुड़े दो बैलों के पीछे कंधे पर लकड़ी के हाल लिए पहुंच जाते हैं खेत पर किसान और धूप खड़ा होने तक बिना रुके हल चलाते।
घर से दूर गढ्ढे पर इकट्ठा किया हुआ गोबर का खाद लकड़ी के पहिए वाली बैलगाड़ी से खेत में पहुंचाते। जैसे ही आषाढ़ श्रावण भादो यानी जुलाई से सितंबर का महीना आता, जिधर देखो लहलहाती धान की गछिया, एक खेत से दूसरे खेत में बहती पानी छरछराती, मेंढकों की टर्रटर्राहट, झींगुरों की सुरीली आवाज, छोटे बड़े बगुलों की चोंच में मछली, क्या नजारा था….. हल जोतते किसान के हाथ में छड़ी लिए हिंग चल आए घुर, आगा भीड़ा, दाहीन चल, हो हिंग हो, जैसे हांक, दूर से आई साड़ी पहनी महिला के माथे पर चमकते बर्तन से खाना लाती।

खेत की आड़ी पर हलवाहा को खाना परोसती, खाने में देसी लाल चावल का पखाल भात, बाड़ी में उगा साग भाजी, खेतों में महिलाएं घोंगी गुगली चुनौती हुई, मछली पकड़ते बच्चे, छोटे-छोटे पत्थरों के नीचे पथरी केकड़े पकड़कर पत्ते की बनी झोली में रखते, लकड़ी की आग में जलकर पकाते और बड़े चाव से खाते थे। कहां गए वह दिन कहां गया वह नजारा जब महिलाएं एक कतार में धान की रोपनी और निकाई करते समय गीत गाती थी। सभी महिला एवं पुरुष एक दूसरे को मदद करते थे, जहां काम के बदले काम हुआ करती थी। जब बारिश होती थी बांस की छतरी, पेट की घोंग लेकर निकलते लोग आराम से काम करते, लेकिन काम नहीं रुकता। कुछ देर की बारिश के बाद साफ वातावरण में बहुत दूर तक आंखों की रोशनी जाती।

आकाश में उड़ती खेलती पक्षियों की संगीत में चहचहाट, साफ हरे घास पर चरते गाय बैल बकरियां। कहीं बैठकर चरवाहा की बांसुरी की सुरीली धुन, शाम को खेत से लौटते लोग जो जानवरों के लिए चारा लाते। शाम होते ही गांव के अखाड़े में मांदर की थाप पर नाचते गेट सभी युवक युवतियों बच्चे एवं बूढ़े। कुछ देर की मनोरंजन दिन भर की थकान को भुला देती। आपसी सामुदायिक प्रेम की प्रगाढ़ता को और भी आनंदमय बनता है। रात को अच्छी गहरी नींद में सोते और सुबह नई ताजगी के साथ उठते और अपने-अपने काम पर फिर से चल पड़ते।
आज खेती के लिए समय पर बारिश कहां और ना ही लोगों की दिलचस्पी।

खेती के लिए पानी की व्यवस्था तो हो जाती है, मगर खेती के साथ जुड़े वो जैव विविधता नहीं मिल पाती। सुविधावादी व्यवस्था में ट्रैक्टर ने सामूहिक हल जोताई और बैलगाड़ी की उपयोगिता को धीरे-धीरे खत्म कर दिया तो लोग गाय बैलों को रखना भी छोड़ दिए और गोबर से बनने वाली जैविक खाद की भी कमी हो गई। हाइब्रिड बीज रासायनिक खाद और श्री विधि तरीका एवं मशीनों की उपयोगिता ने पैदावार तो बढ़ाया लेकिन देसी फसलों और उनके स्वाद तथा पौष्टिकता को भी धीरे-धीरे नष्ट कर दिया। सामूहिकता की वो परंपरा जो एक सुर ताल में नाच गान के साथ जुड़ा हुआ था खत्म हो गया है। जो दिल के झरोखों को खोलने से पुरानी यादों के साथ बहुत याद आती है।

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