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यहां गौपालन है जरूरी, लेकिन गाय का दूध निकालने की है मनाही

(मूलतः किसानों और पशुपालकों के उक्त छोटे से गांव में हर घर में गौपालन की परंपरा रही है )

सरायकेला। कहते हैं कि बीते हुए कल की घटनाएं आने वाले कल को संवारने के लिए सीख देती हैं। और कभी-कभी घटनाओं की सीख अपने आप में पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली अटूट परंपरा बन जाती है। कुछ ऐसी ही परंपरा का विकास सरायकेला खरसावां जिले के गम्हरिया प्रखंड अंतर्गत चौड़ा गांव में देखा जा सकता है। जिसे दुनिया के आठवें अजूबे के रूप में भी कहा जा सकता है। मूलतः किसानों और पशुपालकों के उक्त छोटे से गांव में हर घर में गौपालन की परंपरा रही है। परंतु गाय से दूध निकालने की सख्त मनाही है। इसे लेकर ग्रामीणों के बीच किवदंती प्रचलित है। जिसे गांव में निवास कर रही आज की युवा पीढ़ी भी सम्मान देती है। हालांकि आज के साइंस और हाईटेक युग में इस विषय पर बात रखा जाए तो एक ही डायलॉग सामने आ सकता है कि यह सारी बातें रुढ़िवादी सोच और अपने मन से गढ़ी हुई कल्पना या कहानी का परिणाम है। परंतु वास्तविकता की बात करें तो ग्रामीणों के साथ सभी बातें धरातल पर नजर आती हैं।

प्रचलित किवदंती ग्रामीणों की जुबान से :-


जानकार बुजुर्ग ग्रामीण कोनाराम माझी बताते हैं कि पूर्व के समय में वर्तमान का चौड़ा गांव अन्यत्र थोड़ी सी दूर पर हुआ करता था। घटना के लगभग पांच पीढ़ी गुजर जाने की बात बताते हुए कहते हैं कि पूर्व के चौड़ा गांव में अधिक संख्या में पशुपालक हुआ करते थे। और अत्यधिक मात्रा में गाय के दूध का उत्पादन किया जाता था। उस समय गाय के दूध को बेचने और इस्तेमाल करने के बाद पशुपालक परिवार माटी की हांडी में सुरक्षित रखा करते थे। इस दौरान नर और मादा क्रमश: बिल्ली एवं बिलार का एक जोड़ा गांव में आतंक मचाया हुआ था। जो रातों को आकर माटी के हांडी में रखे हुए दूध को पी जाया करता था। काफी नुकसान से तंग आकर ग्रामीणों ने मिलकर अंततः बिल्ली एवं बिलार के उक्त जोड़े को मार डाला था। जिसके बाद गाय से दूध निकालने पर हानि होने लगी। और अंततः ग्रामीणों को गांव छोड़कर वर्तमान के चौड़ा गांव में आकर बसना पड़ा। बावजूद इसके गाय के दूध निकालने से हानि होने का सिलसिला जारी रहा है।

क्या होता है गांव में गाय का दूध निकालने से लाल/ पीला हो जाता  :-

ग्रामीण बताते हैं कि यदि किसी भी परिस्थिति में गाय का दूध निकालकर उपयोग में लाया जाता है तो उक्त गाय का दूध या तो कुछ दिनों पश्चात लाल/ पीला हो जाता है। या फिर कुछ दिनों पश्चात गाय की ही मौत हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में किसी प्रायोजन या बीमार व्यक्ति या फिर बच्चे के लिए दूध की आवश्यकता पड़ने पर घर में गाय रहने के बावजूद भी ग्रामीण बाहर से दूध खरीद कर लाते हैं। और उपयोग करते हैं।

एक किस्सा  (ग्रामीणों को सब्सिडी एवं सुविधाओं पर गाय दिए जाने की पेशकश)


वर्ष 2005-06 में सरकार की ओर से सर्वे कर गांव में गौपालन और दुग्ध उत्पादन की आदर्श स्थिति को देखते हुए ग्रामीणों को सब्सिडी एवं सुविधाओं पर गाय दिए जाने की पेशकश की गई। जिसमें अन्य सभी ग्रामीणों ने गाय लेने से इनकार कर दिया था। जबकि ग्रामीण विकल हांसदा द्वारा 36000 में जर्सी गाय ली गई। गर्भवती गाय द्वारा बछड़े को जन्म देने के पश्चात दूध भी निकाला गया। और उपयोग में भी लाया गया। परंतु सारा मेडिकल सुविधा देने के बाद भी एक महीने बाद विकल की उक्त जर्सी गाय की मौत हो गई। हांलाकि मौत के कारणों का पता नहीं चल पाया। लेकिन परंपरा पर विश्वास नहीं करने वाले विकल को भी तथाकथित परंपरा पर विश्वास होने लगा।

क्या कहते हैं ग्रामीण :-

 कोनाराम माझी-

प्राचीन समय से यह मान्यता और परंपरा चली आ रही है।

गौपालन लगभग सभी घरों में किया जाता है। गाय का दूध उसका बछड़ा ही सेवन कर सकता है।

बछड़े से तैयार हुए बैल को खेतों के काम में लगाया जाता है।

और गाय को सभी सम्मान के साथ पाला जाता है।

 

 

विकल हांसदा-

गांव में गौपालन को लेकर प्रचलित परंपरा और मान्यता को दरकिनार करते हुए जर्सी गाय खरीदे थे।

परंतु मान्यता के अनुसार ही गाय का दूध निकालने और उपयोग करने एक महीने पश्चात उक्त जर्सी गाय

की मौत हो गई थी। हांलाकि गाय की मौत के कारणों का पता नहीं चल पाया। परंतु सभी स्वास्थ्य

सुविधाएं दी गई थी।

 

 

सीनू हांसदा-

गांव में गौपालन की परंपरा प्राचीन समय से रही है।

परंतु प्रचलित मान्यता के अनुसार गाय का दूध नहीं निकाला जाता है।

विषम परिस्थिति में गाय के दूध की आवश्यकता होने से बाहर से दूध लाकर उसका उपयोग किया जाता है।

 

शंभू मंडल (समाजसेवी ) –

चौड़ा गांव में गौपालन की परंपरा रही है।

परंतु प्रचलित मान्यता के अनुसार पाले गए गाय का दूध निकालने की मनाही है।

गाय के दूध का उपयोग सिर्फ उसके बछड़े ही करते हैं।

इस मान्यता एवं परंपरा को वर्तमान की युवा पीढ़ी भी मानते हुए उसका पालन करती है।

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