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एक सप्ताह के इस त्योहार पर हर गांवों में होता है उल्लास,
पशुधन और पशुपालक होते हैं खास…….
सरायकेला। कहते हैं कि इतिहास की नींव पर ही वर्तमान खड़ा होता है, और वर्तमान की सीख से ही बुलंद भविष्य बनता है। यदि बात परंपरा एवं संस्कारों की हो तो उक्त उक्ति के आधार पर ही पीढ़ी दर पीढ़ी परंपराएं एवं संस्कार आगे बढ़ते एवं संवरते तथा समृद्ध होते जलते हैं। हालांकि समय के साथ ऐसी मूल परंपराओं और संस्कृति संस्कारों में परिवर्तन भी होता रहा है। बावजूद इसके सभ्य समाज में इन्हीं परंपराओं और संस्कृति संस्कारों से खुशियों और उल्लास का वातावरण देखा जाता है।
बात जब क्षेत्र के प्रसिद्ध वार्षिक वांदना पर्व की की जाए, तो सभी पुरातन परंपरा और संस्कार जाग उठते हैं। विशेष रुप से पशुपालकों के इस चार दिवसीय त्यौहार में समूचा गांव और ग्रामीणों के सगे संबंधी शामिल होते हैं। जिसका शुभारंभ एक सप्ताह पूर्व मिट्टी के घरों और गौहालों की परंपरागत तरीके से लिपाई पुताई के साथ शुरू हो जाती है। जहां मिट्टी के मोल की बात करने वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए रंग बिरंगी मिट्टियां बाजारों में बिकती हैं। घरों और गौहालों की लिपाई पुताई के लिए ये विशेष रंगीन मिट्टियां 15 से 50 प्रति टीना की दर से बेची जाती हैं। जिससे शुभ आगमन की मान्यता के साथ घरों और गौहालों की रंग बिरंगी पुताई करते हुए आकर्षक फूलों की चित्रकारी कर सजाया जाता है। जिसे लेकर तैयारी जोरों पर है।
चार दिनों का त्यौहार पर होता है सप्ताहिक आयोजन
वांदना पर की शुरुआत कार्तिक महीने के चतुर्दशी तिथि को गठ पूजा के साथ की जाती है। जिसमें चरागाह हमें पशुधन के सुरक्षित रहने के लिए गठ देवता, ग्राम देवता एवं जाहेर देवता की पूजा नाये माझी पुजारी द्वारा की जाती है। जिसमें गांव के सभी पशुपालक अपने अपने गाय बैलों को लेकर ग्राम स्थल पर पहुंचते हैं। यहां गाय बैलों के सिंघ में तेल लगाया जाता है। और पूजा के अंत में पूजा कर एक अंडा को गठ में रख दिया जाता है। और उसी रास्ते गाय बैलों को पर कराया जाता है। जिस गाय या बैल के पैर से अंडा टूटता है। उसे फूल माला पहनाकर और सिंदूर लगाकर छोड़ दिया जाता है। अगले साल उस गाय या बेल के मालिक को खुशी के साथ चावल देना पड़ता है। इस रात को ग्रामीण दलबल होकर वाद्य यंत्रों को बजाते हुए वांदना गीत गाते हुए घर घर जाकर गाय बैलों को जगाते हैं।
गठ पूजा के दूसरे दिन अमावस्या को गहाल पूजा का आयोजन किया जाता है। जिसमें गौशाला में साल लकड़ी का दो प्रतिमूर्ति एक गाय बैलों के देवता गरईया ठाकुर और दूसरा काली माता का बनाकर पूजा किया जाता है। पशुओं की सुरक्षा और अच्छे स्वास्थ्य को लेकर उक्त पूजा के दिन पूरी रात ग्रामीणों द्वारा बाजा बजाते हुए घर घर जाकर गाय बैलों को जगाया जाता है। घर की स्त्रियां इस दिन चावल के आटा गुंडी, सिंदूर और मेथी देकर मवेशियों को पूजने के पश्चात धान शीश के ताज का श्रृंगार करती हैं। गहाल पूजा के अगले दिन वांदना पर्व मनाया जाता है। जिसमें गाय बैलों को विभिन्न प्रकार के रंग लगाकर सजाया जाता है। और धान शीश के ताज से सजाकर बालों को आम रास्ता में एक मजबूत खूंटे से रस्सी के सहारे बांध दिया जाता है। इसके बाद बैलों को बाजा बजा कर नचाया जाता है। जिसे गोरु खुंटा कहा जाता है। इसके बाद बैलों को छोड़ दिया जाता है। पुन: घर लाते समय बैलों का नजर उतारते हुए तेल हल्दी देकर पैरों को धोया जाता है।त्यौहार के समापन के दिन बूढ़ी वांदना का आयोजन किया जाता है। इस दिन मौज मस्ती करते हुए लोग जमकर मेहमाननवाजी करते हैं।
क्षेत्र के जानकार शिक्षाविद रंगलाल महतो एवं समाजसेवी शोभा रानी भकतबताते हैं कि पशुधन के उक्त त्योहार में प्रत्येक दिन गाय बैलों के सिंघ में
सिंदुर तेल लगाने और पीठा पकवान खिलाते हुए आरती उतारने की परंपरा रही है।
भगवान भोलेनाथ इस रात्रि पशुओं का हाल जानने स्वयं आते हैं धरती पर
धार्मिक मान्यता रही है कि एक बार धरती के पशुओं ने मानव जाति की प्रताड़ना से तंग होकर इसकी शिकायत अपने इष्ट देव भगवान भोलेनाथ से की। जिसके बाद भगवान भोलेनाथ ने शिकायत करने पहुंचे पशुओं को आश्वासन दिया कि वे स्वयं धरती पर आकर मानव जाति द्वारा किए जा रहे पशुओं पर अत्याचार को देखेंगे। जानकार बताते हैं कि आमावस की रात भगवान भोलेनाथ धरती पर आकर गौशाला में पशुपालकों द्वारा पशुओं की असीम खातिरदारी होते देख प्रसन्न होते हैं। और पशुओं को सदैव मानव जाति के साथ मिलकर रहने की प्रेरणा देते हैं।