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आज भी ग्रामीण इलाकों में होली खेलने के लिए पलाश के फूलों से तैयार होते हैं रंग…

“ऐसा रंग दे कि रंग नाही छूटे..”

के संदेश के साथ हर ओर खिले पलाश के फूल प्रकृति को रंगीन बना रहे हैं…

सरायकेला: प्रकृति के नवयौवन को प्रदर्शित कर रहे झारखंड का राजकीय फूल पलाश इन दिनों वसंत ऋतु के चरम पर होने और रंगोत्सव के आगमन की सूचना दे रहे हैं। झारखंड में पलाश के फूलों से बने रंगो से होली खेलने की अनोखी परंपरा है।

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खासकर ग्रामीण इलाकों में केमिकल युक्त रंगों के बदले लोग प्राकृतिक रंगों से होली खेलते हैं। पिचकारी में भरकर एक-दूसरे को मारते हैं। होली के तीन-चार दिन पहले से ही लोग रंग बनाने में जुट जाते हैं। ठंड के बाद, गर्मी आने से पहले राज्य के जंगलों में पलाश के लाल फूलों की चादर बिछ जाती है। कहा जाता है कि ऋतुराज बसंत की सुंदरता पलाश के फूल के बगैर पूर्ण नहीं होती। इसके फूल को बसंत का श्रृंगार माना जाता है। होली का त्योहार हो और सिंदूरी लाल पलाश या टेसू के फूल का जिक्र न हो ऐसा संभव ही नहीं है। जी हां, रासायनिक रंगों के दौर में भी सिंदूरी लाल पलाश से बने रंग की काफी डिमांड है। इसकी खास वजह भी है।

होली रंगों का त्योहार है। रंगों के इस त्योहार में सिंदूरी लाल पलाश या टेसू के फूलों का प्रयोग लंबे समय से रंग बनाने के लिए किया जाता है। जिससे लोग होली खेलते थे। वर्तमान में रासायनिक रंगों की सुलभता ने भले ही लोगों को प्रकृति से दूर कर दिया हो, लेकिन रासायनिक रंगों से होने वाले नुकसान और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के कारण लोग दोबारा प्रकृति की ओर रुख करने लगे हैं। आज भी ग्रामीण इलाकों में पलाश के फूल से बने रंगों से होली खेली जाती है, क्योंकि इस रंग से त्वचा को कोई नुकसान नहीं होता है।

पलाश के फूल का जिक्र साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में किया है, वहीं होली के दौरान गाए जाने वाले गीतों में भी पलाश या टेसू के फूल का जिक्र मिलता है। कवियों ने अपनी कविताओं में भी पलाश के फूलों का गुणगान किया है। साथ ही इसके असीमित औषधीय गुण शरीर के लिए फायदेमंद होते हैं। वर्तमान समय में भी राजनगर, सरायकेला के ग्रामीण क्षेत्र, कुचाई में पलाश के फूल से रंग तैयार किया जाता है। पलाश के फूल से बने प्राकृतिक रंग से लोग होली खेलते हैं। प्राचीन काल में इसके फूलों का इस्तेमाल कपड़ों को रंगने के लिए किया जाता था। पलाश के फूल से बने रंग से होली खेलने से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ता है।

पलाश के फूल से कई विधियों से रंग बनाया जाता है। फूल से रंग बनाने के लिए पहले फूल को छाया में सुखाया जाता है। सूखे फूलों को दो से तीन लीटर पानी में डालकर दो से तीन दिन तक के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद पानी का रंग लाल या सिंदूरी हो जाता है। इस रंगीन पानी का इस्तेमाल सुरक्षित होली खेलने के लिए किया जा सकता है। दूसरे तरीके से पलाश के फूल को पेड़ से तोड़कर मिट्टी के हंडी में दो से तीन दिनों तक रखा जाता है, इसके बाद इससे रंग निकल आता है, जो काफी गहरा होता है।

झारखंड प्रदेश के राजकीय फूल घोषित पलाश को लेकर प्रकृति पूजक आदिवासी समाज में धार्मिक मान्यताएं रही हैं। वसंत ऋतु के आगमन के साथ प्रकृति की यौवनता प्रदर्शित करने वाले पलाश के फूल का सर्वप्रथम उपयोग जाहेरथान में इष्ट देवता को चढ़ाया जाता है। उसके बाद ही आदिवासी युवतियां श्रृंगार करते हुए अपने जुड़े में इसे लगाती हैं।

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