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बड़े बदलाव की वयार तो फिर आक्रातांओ के नामों को क्यों ढोना ?

संजय कुमार विनीत
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्ले

यूं तो नामों में क्या रखा है, कहा जा सकता है। अगर देखा जाये तो व्यवहार, गुण-अवगुण ये सब बाद की बातें हैं। पर नाम आपका एक खाका खींच देता है, जो मन-मस्तिष्क पर तस्वीर बना देता है। और आज नाम इसलिए भी प्रासंगिक हो उठा है, क्योंकि केंद्र सरकार ने उत्तरप्रदेश की बहुत ही ख्यातिप्राप्त चिर-परिचित जगह का नया नामकरण किया है। एक बड़े बदलाव की जो बयार आई है, अब आक्रातांओ के नामों को ढोना नहीं चाहती। अब उठी है दिल्ली में नजफगढ़, मुस्तफाबाद और मोहम्मदपुर के नाम बदलने की मांग, इसे लेकर तनाव बढ़ गया है‌। नाम बदलने- नहीं बदलने के क्या तर्क- कुतर्क हो सकतें हैं, जो अब फिर से उभर कर सामने आ रहे हैं।

दिल्ली में नजफगढ़, मुस्तफाबाद और मोहम्मदपुर के नाम बदलने की मांग पर तनाव बढ़ गया है। बीजेपी विधायक इन स्थानों के नाम नहरगढ़, शिव विहार और माधवपुरम के रूप में देखना चाहते हैं। उनका तर्क है कि ये नाम मुगल काल में बदले गए थे और अब मूल पहचान को पुनःस्थापित किया जाना चाहिए। विधायकों का दावा है कि यह बदलाव हमारी संस्कृति और सभ्यता की वास्तविक पहचान का प्रतीक बनेंगे। यूँ तो नाम बदलने की एक लम्बी प्रक्रिया है और ये अंततः गृह मंत्रालय के मुहर के बाद अंतिम रूप में होता है।

ऐसा नहीं है कि पहली बार कोई नाम बदलने का प्रस्ताव आया हो। नाम बदलने का एक लंबा इतिहास रहा है। ऐसे सडक – मुहल्लों की
तो आप गिनती तक नहीं कर सकते, क्योंकि नगर निगम के आका इसे आसानी से नाम परिवर्तित कर सकते हैं। बहुत से लोग नहीं जानते होगें कि भारत में शहरों के क्या, राज्यों के नाम तक बदलने के इतिहास हैं। समय समय पर सरकारें कभी वास्तविक जरूरत पर तो कभी राजनीतिक सिद्धी के लिए नामें परिवर्तित करती रही है‌।

अगर हम इसके इतिहास पर गौर करें तो पाते हैं कि स्वतंत्र भारत में राज्यों के नाम 1950 में सबसे पहले पूर्वी पंजाब का नाम बदलकर पंजाब रखा गया। 1956 में हैदराबाद से आंध्रप्रदेश, 1959 में मध्यभारत से मध्यप्रदेश नामकरण हुआ। 1969 में मद्रास से तमिलनाडु, 1973 में मैसूर से कर्नाटक, इसके बाद पुडुचेरी, उत्तरांचल से उत्तराखंड, 2011 में उड़ीसा से ओडिशा नाम किया गया। अब अगर शहरों पर गौर करें तो मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, शिमला, कानपुर, जबलपुर लगभग 15 शहरों के नाम बदले गए। और सिर्फ इतना ही नहीं, जुलाई 2016 में मद्रास, बंबई और कलकत्ता उच्च न्यायालय का नाम भी बदल गया।

हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत सदियों पुरानी है। बीच के कालखंड में आततायी आए, शासन किया और मानसिकता बदली। अपने गौरव को लौटाना और अभिमान करना है तो हमें कदम उठाने ही होंगे। इसका मकसद संप्रदाय, पूजा पद्यति या मान-अपमान का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। ऐतिहासिक भूलों को सुधारनों का सिलसिला अगर बढ़ता है तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
यहां के मूल्यों और संस्कृति से निकले हुए डा. अब्दुल कलाम आजाद के नाम पर दिल्ली मे सड़क बनती है तो किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है। वे हमारे अपने थे, प्रेरणास्नोत थे‌।

दिल्ली सहित पुरे देश में गांवों के नामों के साथ मुगलों के समय में बहुत खिलवाड़ हुआ है। देश या दिल्ली में जो भी आया, उसने इसे लूटा, खून बहाया और इसके सम्मान पर आघात किया। इतिहास गवाह है कि आक्रमणकारियों ने दिल्ली को किस-किस तरह से तोड़ा, कैसे जुल्म किए और किस तरह से देशवासियों की भावनाओं और मान-सम्मान को अपने अभिमान और क्रूरता तले रौंदा। इन्हीं घटनाओं, क्रूरताओं और बर्बरताओं की निशानी आज भी नामों के रूप में हमें डंसती रहती हैं। मुगलों ने विजित भाव में आकर स्थानों के नाम बदले, अपने निशान छोड़े। इन्हीं नामों को धारण किए गांवों शहरों में रहते लोग चले आ रहे हैं। अब तक इतिहास की इस भूल को नहीं सुधारा गया लेकिन अब जागृति आ रही है तो पुराने नामों को पुनस्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है।

यूपीए सरकार के समय में कनाट प्लेस और कनाट सर्कस का नाम बदलकर राजीव चौक और इंदिरा चौक हुआ था। अगर हम अंग्रेजों के दिए नामों को बदल रहे हैं तो मुगलों के दिए नाम क्यों न बदलें। दिल्ली के कई अस्पतालों के नाम अंग्रेजों के नामों पर थे, इनके नाम बदल दिए गए तो फिर मुगलों के दिए नामों को बदलने में क्या आपत्ति हो सकती है। अगर पिछले 8 साल में देखे तो रोड, उद्यान के नाम तो बदले गए है। दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास के सामने वाली सड़क 7 रेस कोर्स रोड का नाम बदलकर लोक कल्याण मार्ग किया गया था। राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट के बीच राजपथ का नाम बदलकर ‘कर्तव्य पथ’ हो चुका है। 2023 में राष्ट्रपति आवास में मौजूद मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान किया गया था। इसी तरह डलहौजी रोड का नाम बदलकर दारा शिकोह मार्ग और औरंगजेब लेन का नाम बदलकर अब्दुल कलाम के नाम पर रखा गया है। पर ये पहली बार है जब गांव या इलाके का नाम बदलने की मांग उठी है।

दिल्ली ढिल्ली थी, शाहजहांनाबाद थी या फिर इंद्रप्रस्थ थी, इनके वास्तविक नाम क्या थे। कई अभिलेख मिले, कई साक्ष्य मिले लेकिन नामों के बदलाव की बात नहीं हुई।अखिल भारत हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि महाराज तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलकर दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ करने की मांग कर चुके हैं। दिल्ली में कुल 365 गांव हैं और अधिकतर के नामों में विदेशी आक्रमणकारियों की छाप मिलती है। दिल्ली के इलाके नजफगढ़, मोहम्मदपुर और मुस्तफाबाद , इन तीनों नामों की पहचान मुस्लिमों से जुड़ती है। जबकि वास्तविकता इससे परे है,इसलिए नजफगढ़ का नाम नाहरगढ़, मोहम्मदपुर का नाम माधवपुर , और मुस्तफाबाद का नाम बदलकर शिव विहार करने की मांग उठाई जा रही है।

ऐसा नहीं है कि दिल्ली की बीजेपी सरकार पहली बार ऐसा करने जा रही है। इससे पहले भी कई राज्यों में कई स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। ये समय-समय पर तकरीबन हर सरकार करती आई है। अकेले यूपी की बात करें तो बसपा, सपा और भाजपा सरकार ने कई स्थानों के नाम बदले हैं। हालांकि, नाम बदलने के मामले में यूपी का योगी मॉडल सुर्खियों में रहता है। नाम बदलने के पीछे एक पॉलिटिकल साइकोलॉजी भी होती है, जिसका सीधा असर लोगों पर होता है।

दूसरों के दिए नामों को बदलना और अपने नामों को वापस लाना हमारे लिए गौरव की बात होगी और इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। जब हम अपनी जड़ो से गौरवान्वित इतिहास से उस शहर गाँव,माटी से अनभिज्ञ रहते हैं , तो कह देतें है कि नाम बदलने से क्या रखा है। पर सिर्फ राजनैतिक दृष्टिकोण से इन मांगों पर विचार करना उचित नहीं कहा जा सकता है। पर हां, गैर राजनीतिक लोगों की एक कमिटी बनाकर सिर्फ दिल्ली ही क्यों, बल्कि पूरे देश में गुलामी के दंश को समूल नाश के लिए सरकार को आगे बढ़ना उचित होगा। इससे हम संस्कृति, इतिहास और सभ्यता की अच्छी समझ आने वाले पीढ़ी को दे पाने में सक्षम होगें।