विश्व प्रसिद्ध सरायकेला छऊ नृत्य में मुखौटा निर्माण का सफरनामा…
सरायकेला- खरसावां (संजय कुमार मिश्रा) विश्व प्रसिद्ध सरायकेला छऊ नृत्य अपने आप में पूरा एक प्रकृति को समाहित करता है। जिसके हर अंग में, भाव भंगिमा में, लय लास्य में, धून ताल में और पद चाली में प्रकृति की समूची कहानी झलक उठती है। यही कारण रहा है कि प्राचीन समय से छऊ की धुन बजते ही हर कदम छऊ अखाड़ा की ओर चल पड़ते थे। इतना ही नहीं इस नृत्य कला के दीवाने देश सहित विदेशों से भी सरायकेला के विभिन्न अखाड़ों में पहुंचा करते थे। परंतु बीते कुछ दशकों से विदेशी कलाकार और कला प्रेमियों का सरायकेला आना लगभग थम सा गया है। इसके पीछे के कारणों को सरायकेला छऊ के अग्रिम पंथी के छऊ गुरुओं और कला प्रेमियों को मंथन करने की आवश्यकता बताई जा रही है। इसी बीच सरायकेला छऊ के मूल प्रकृति की संरक्षण को लेकर भी कवायद जारी है।
जिसे लेकर सरायकेला छऊ नृत्य के प्रतिपादक एवं राजकीय छऊ नृत्य कला केंद्र सरायकेला के सेवानिवृत्त वरीय अनुदेशक गुरु विजय कुमार साहू “मुखौटा और सरायकेला छऊ” के संबंध में बताते हैं कि छऊ शब्द संस्कृत भाषा के छाया से उत्पन्न हुआ है। सरायकेला शैली का छऊ नृत्य का मुखौटा या छऊ जिसे स्थानीय भाषा में महड़ा भी कहा जाता है, आकर्षण का केंद्र रहा है। जिसके बिना छऊ नृत्य में अभिनय नहीं किया जाता है। और विशेष रुप से सोचने का विषय है कि एक स्थिर मुखौटे के साथ छऊ नृत्य कलाकार नृत्य के पूरे किरदार का अभिनय प्रस्तुत करता है।
उन्होंने बताया है कि भरत नाट्यशास्त्र का कर्ण के साथ छऊ नृत्य का विशेष शैलियों का सामंजस्य विद्यमान है। प्राचीन काल में नृत्य में प्रयुक्त मुखौटा बड़े आकार और डिजाइन की विभिन्न सामग्रियों से बनाया जाता था। मुखौटा बनाने की कला का एक लंबा इतिहास रहा है। जिसमें जब मुखौटे बनाने की कला का विकास नहीं हुआ था तो कलाकार पेड़ों की शाखाओं के पत्तों से अपने चेहरों को ढकते थे। और पगड़ी पहनते थे। इसके बाद बांस से बने मुखौटा “बांस टाट्रा महड़ा” का विकास हुआ। इस दौरान कुछ कलाकारों ने तरबूज और कद्दू या इसी तरह के फलों के सूखे गोले से मुखौटा तैयार करने का ट्रेंड चलाया गया। ऐसे सुखे गोलों पर अलग-अलग रंग से चित्रित कर पक्षियों या जानवरों के चेहरे का रूपरेखा दिया जाता था। तरबूज के सूखे गोले के मास्क के बाद लकड़ी के मुखौटा पहनने का समय आया। जो भारी और मजबूत होते हुए भी काफी कलात्मक और टिकाऊ होते थे। इन मुखोटे में चौड़े जबड़े होते थे। और इन्हें आमतौर पर सिर पर लगाया जाता था। नर्तक मुंह के छिद्र के जरिए सांस लेते और देखते थे।
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में मुखौटा बनाने की कला में क्रांति देखी गई। इस दौरान मुखौटा निर्माताओं ने मिट्टी की मॉडल से मुखौटा बनाने की कला का शुभारंभ किया। सरायकेला छऊ मुखौटा बनाने की अवधारणा में एक बड़ा बदलाव लाते हुए मिट्टी के मॉडल मिट्टी के बने हेडगियर्स के साथ बने थे। जिसे “थाट बांधा महड़ा” के नाम से जाना जाता था। लेकिन तब यह आकार और डिजाइन में भारी एवं बड़े होने के कारण असहज थे। जिससे नर्तक को नृत्य करने में काफी असुविधा होती थी। बीसवीं दशक में ही सरायकेला छऊ के महान गुरु कुंवर विजय प्रताप सिंहदेव एवं अन्य कुछ जानकारों द्वारा सरायकेला छऊ को एक बेहतर आकार और अधिक कलात्मक अवधारणा देने की कोशिश की गई। जिसके बाद चिपके हुए कोमल रंग, लंबी आंखें, पशु या पक्षी की विशेषताएं के साथ होठों का थपथपाना, कोमल मंडराती मुस्कान, नीचे की ओर झुकी हुई आंखें, नाजुक भाव सभी सरायकेला मुखौटा की सूक्ष्म कला को दर्शाने लगे। छऊ मुखौटा की तैयारी के लिए चरित्र का सावधानीपूर्वक और गहन अध्ययन करते हुए एक लुभावनी सुंदरता में भावनाओं को गढ़ा गया। जरी के मुकुट और मोती, मुकुट की महिमा, मुखौटा को एक शाही स्पर्श देने लगे। जिसके माध्यम से नर्तकों द्वारा पहने जाने वाले मुखोटे में एक उत्कृष्ट उपस्थिति होती है। और नृत्यों के माध्यम से विभिन्न मनोदशाओं एवं सौंदर्य भावनाओं के लिए एक भाषा होती है।
वर्तमान में मुखौटा को डॉट पेपर और मिट्टी से बनाया जाता है। जिसने कपड़े के कागज और खरकाई नदी के पास पाए जाने वाले विशेष मिट्टी से इनका निर्माण किया जा रहा है। उन्होंने बताया है कि मुखौटा सरायकेला छऊ का अभिन्न अंग है। जो भले ही स्थिर है, परंतु नृत्य कलाकार द्वारा दर्द एवं खुशी के सभी भावनाओं को प्रदर्शित करता है। जब नर्तक इसे पहनता है तो यह जीवंत हो उठता है, और देखने वाले को सम्मोहित कर लेता है। जो ना केवल सुंदरता की चीज है बल्कि एक जीवंत कविता है, रंग क्रिया और प्रतीकवाद का एक दुर्लभ संगम है, जिस पर विश्वास करने के लिए केवल देखना है।