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सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध ने हाथ में पकड़ाए थैले, कागज के ठोंगा और साल के पत्तों का महत्व भी बढ़ा…..

सरायकेला (संजय मिश्रा )   कहते हैं किश हर सकारात्मक परिवर्तन थोड़ा कष्टदायक होता है तो वही एक सुखद भविष्य की ओर भी ले जाता है। सरकार द्वारा सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगाए जाने के बाद समाज के लगभग निचले तबके जीवन बसर कर रहे एक वर्ग का रोजगार एक बार फिर से बेहतर स्थिति में खड़ा होने लगा है।

जिसके तहत सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगाए जाने के बाद से कागज के होममेड ठोंगे बनाकर बेचने वालों का रोजगार एक बार फिर से चमकने की स्थिति में है। जो आने वाले भविष्य में संरक्षण प्राप्त होने पर कुटीर उद्योग का रूप भी ले सकता है। इतना ही नहीं वन संसाधन पर जीवन बसर कर रहे ग्रामीणों के साल के पत्ते की किस्मत भी सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगाए जाने के बाद से निखरने लगी है।

जिसमें कागज के ठोंगो की मांग बाजार में बढ़ने के साथ-साथ साल के पत्तों के बने प्लेट पत्तल और कटोरियां दोने की बिक्री भी इन दिनों बढ़ी है। इसके साथ ही आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बताया जा रहा है कि सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन होने और कागज के ठोंगो एवं पत्तों के दोने तथा पत्तल के उपयोग में आने के बाद पूजा परंपरा में शुद्धता की प्राचीन परंपरा वापस लौट रही है।

दुकानदार भी खरीद रहे हैं पत्तल, दोना और ठोंगा :-


सिंगल यूज प्लास्टिक पर बैन लगते ही बाजार में जहां प्लास्टिक के कैरी बैग का उपयोग बंद दिख रहा है। वही खरीददार लोगों के हाथों में जूट के थैले नजर आने लगे हैं। जबकि दुकानदार अपने ग्राहकों को सामग्री देने के लिए ठोंगे का भरपूर उपयोग कर रहे हैं।

स्थानीय युवा व्यवसाई ललित चौधरी बताते हैं कि प्रतिदिन बाजार में एक से डेढ़ क्विंटल ठोंगों की खपत हो रही है। जिसमें दो प्रकार के ठोंगे बाजार में उपलब्ध हो रहे हैं। इसके तहत चालू पेपर से बने ठोंगे ₹70 से ₹80 किलो और अच्छे क्वालिटी के ठोंगे ₹90 से ₹100 की दर से बेचे जा रहे हैं। इसी प्रकार पत्तों के बने हैंड मेड पत्तल और दोने की मांग भी बाजार में बढ़ी है। जंगल से सटे ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी मात्रा में पत्तों के बने दोने और पत्तल बाजार में पहुंच रहे हैं। जिसे स्थानीय पुजारी और पंडितों द्वारा भी आध्यात्मिक दृष्टि से अति शुद्ध बताते हुए पूजा कार्य में उपयोग किया जा रहा है। पुजारी और पंडितों के अनुसार प्लास्टिक जैसी चीजें पूजा कार्य के लिए निषेध बताई गई हैं। इसके अलावा सामाजिक समारोह और संस्कारों में भी पत्तल और दोना का उपयोग बढ़ा है। यहां तक कि फैशन के माहौल में अब घरों सहित होटलों में भी थाली के ऊपर पत्तल रखकर भोजन परोसने का प्रचलन चल पड़ा है।

हो सकता है नारी सशक्तिकरण का बेहतर स्वरूप :-


कागज का ठोंगा बनाने की बात हो या फिर पत्ते से पत्तल और दोना बनाने की बात हो, दोनों में ही कुशल श्रम के रूप में महिला ही अग्रणी है। जिनके द्वारा समूहबद्ध होकर कागज का ठोंगा बनाया जा रहा है। जिसमें सरायकेला के खोडरासाई मोहल्ले में महिलाएं एकताबद्ध होकर ठोंगा बनाने का कार्य कर रही हैं। जिसे स्थानीय तौर पर बाजारों के दुकानों में घूम घूम कर बेचा जाता है। जिसमें कागज की लागत, बनाने की सामग्री और मेहनत की अपेक्षा आमदनी को अपेक्षाकृत कम बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यदि कुटीर उद्योग के रूप में इस व्यवसाय को संरक्षण देकर विकसित किया जाए तो इससे जुड़े सभी महिलाएं अच्छा रोजगार कर सकेंगी। इसी प्रकार जंगल जाकर पत्ते लाना और उससे पत्तल एवं दोना बनाने का कार्य वन क्षेत्र से जुड़े ग्रामीण महिलाओं द्वारा वर्षों से किया जाता रहा है। वर्तमान में इनकी मांग एक बार फिर से बढ़ने के कारण रोजगार में निखार आने लगा है।

जिसे भी संरक्षण देकर कुटीर उद्योग के रूप में विकसित किए जाने की मांग की जा रही है। बहरहाल सिंगल यूज प्लास्टिक के बैन होने के बाद बाजार में सबसे अधिक डिमांडेड कागज के ठोंगे और पत्तल एवं दोना के रोजगार से जुड़ी महिलाओं के कार्य को देखते हुए इसे संरक्षण देकर स्वावलंबी महिला सशक्तिकरण का बेहतर स्वरूप दिया जा सकता है।

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