झारखंड राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा भारतीय जनता पार्टी पर क्यों है भारी ?
✍️ : दीपक नाग (रांची )
चौबीस साल पहले जिस राज्य को अलग राज्य का पहचान मिला। और इसके साथ ही जनमत ने भारतीय जनता पार्टी के हाथों राज्य चलाने की जिम्मेदारी सौंपी थी । सबल और विस्तार होने की जगह आज यह पार्टी इतनी सिमटती क्यों गई है झारखंड में ? यह कोई यक्ष प्रश्न नहीं है, कुछ पहलुओं पर नजर डालें तो काफी हद तक समझ में आ सकता है ।
कहते है अत्याधिक आत्मविश्वासी होना ही किसी के लिए घातक साबित हो सकता है । इसका अनेक उदाहरण देश में समय – समय पर हमें देखने मिलता रह है। हाल में हुए दिल्ली के चुनाव में अरविंद केजरीवाल का गुरूर टूटना और शीश महल का सपना है हाथ से छुटना । इसके अलावे 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को भी बड़ा झटका मिला । ऐसी ही अवस्था कांग्रेस पार्टी की भी है । अपना अस्तित्व रक्षा के लिए लड़ रहें हैं ।

बात अगर झारखंड राज्य का करें तो 15 नवंबर 2000 में झारखंड राज्य को अलग राज्य का पहचान मिला । जनादेश ने भाजपा के हाथों सत्ता सौंपा । कहां चुक हूई कि, भाजपाईयों के हाथों से सत्ता छीनने में झारखंड मुक्ति मोर्चा को सफल मिली। कहीं तो चूक हुई होगी, वर्ना यूं ही जनमत इनसे बे-वफा नहीं होतें । आज बहुमत के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा राज्य में शासन चला रहा है । भाजपा के आलाकमान विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण करने में गलती की या गुटबाजी का परिणाम रहा या तो फिर, राज्य में पार्टी नेतृत्व करने वालों में कमियां हैं ? यह बेहतर वहीं समझ सकते हैं, जिन्होंने मात खाई है ।
वैसे तो, टैग – ऑफ – वार की लड़ाई राजनीति का एक अहम हिस्सा होता ही है । वर्तमान परिदृश्य को देखे तो हेमंत सरकार विपक्ष के राजनीतिक दलों पर भारी पड़ता नजर आ रहे हैं। जाहिर है, जिस दल के लोग सत्ता पर आसीन होते हैं उस पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल हमेशा ऊंचा रहता है । दुसरी ओर झारखंड सरकार के विपक्षी दल भाजपा के कार्यकर्ताओं में उत्साह में कमी क्यों लग रहा है ? यह एक अहम् सवाल है ! इतना तो सब जानते हैं राज्य हो या केन्द्र के सरकार हो, जो भी सरकार शासन में होते है उनके शासन व्यवस्था में कुछ न कुछ तो त्रुटियां होती ही है । एक राज्य के भीतर जिला, प्रखंड, पंचायत, गांव, टोला, मुहल्ले वगैरह-वगैरह समाया हुआ है । ऐसे मे आम जनता के छोटे – बड़े समस्याएं बना रहना लाजिमी है । अलग – अलग शहरों से लेकर गांव – महोल्ले तक अनेक असुविधाएं बनी रहती है । स्थानीय समस्याओं को लेकर जनप्रतिनिधियों को विपक्ष के पास घेरने के लिए मौका होता है। आश्चर्य की बात है कि, विपक्ष के कार्यकर्ताओं को यह सारी बातें समझ में अब तक नहीं आई है । छोटे-छोटे मुद्दों पर घेरा जा सकता है और जनमानस के दिलों को जीता जा सकता है। हां, कभी – कभार भाजपाईयों को सड़कों पर देखा जाता है छोटा-मोटा विरोध प्रदर्शन करते, वह भी स्थानीय किसी समस्या को लेकर नहीं ! कार्यक्रम के लिए पार्टी हाई कमान से कोई आदेश आया होगा तो एक बार के लिए किया जाता है । ऐसे में सत्ता पर राज करने का सोचना “मुंगेरीलाल की हसीन सपने” देखने के समान हो सकता है ।
किसी भी राजनीतिक दल की जीत पार्टी के कैडरों के वोट पर पूर्ण रूप से निर्भर नहीं करता है। हार-जीत का फैसला तो जनादेश के हाथों में होती है । जो न तो कभी किसी पार्टी का झंडा ढोता हैं और न ही डंडा ।
जाहिर है, चुनाव के चंद महीने पहले दौड़ आरंभ करना सफलता का सीढ़ी नहीं हो सकती है । मैराथन दौड़ने वाले ही चुनौती दे सकता है । चुनावी दंगल पांच साल का मैराथन है । इतना आसान नहीं है यह दंगल ! इसका एक उदाहरण बताना इस मौके पर उचित होगा, घाटशिला विधानसभा वर्ष 2005 का चुनाव से जुड़ा हुआ किस्सा है । घाटशिला के वर्तमान विधायक सह राज्य के शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन और तत्कालीन तीन बार के लगातार विजेता कांग्रेस के विधायक डॉ प्रदीप कुमार बालमुचू के बीच घमासान चुनावी टक्कर हुई थी। रामदास सोरेन झामुमो के बागी उम्मीदवार के रूप में निर्दलीय प्रार्थी बनकर घाटशिला विधानसभा के चुनावी मैदान में अकेले ही कुद पड़े थे। उनके सीधा टक्कर कांग्रेस (यू पी ए गठबंधन) के सिटिंग विधायक डॉ प्रदीप कुमार बालमुचू के साथ था । उस दौरान, बालमुचू के चुनाव प्रचार मे सोनिया गांधी और झामुमो सुप्रीमो खुद शिबू सोरेन आए थें । दुसरी ओर रामदास सोरेन के चुनावी रथ में कोई सारथी नहीं था, वह अकेले ही चुनावी रण क्षेत्र में डटे हुए थे । रामदास सोरेन ने इस चुनाव में महाभारत के कर्ण की तरह जोरदार मुकाबला अपने प्रतिद्वंद्वी से किया । कड़ा मुकाबले के बाद रामदास सोरेन वह चुनाव हार गए और दुसरे स्थान पर अपना नाम दर्ज करने में सफल हुए। चुनाव हार कर भी रामदास सोरेन थके नहीं, कहीं रुके नहीं । नियमित रुप से घाटशिला विधानसभा का दौरा करते रहें अगला चुनाव आने तक । पांच साल लोगों से मिलता रहा, अपने समर्थकों का काफ़िला बढ़ाता गया ।
पांच साल बाद 2009 में झारखंड राज्य में विधानसभा का चुनाव फिर से आया । रामदास सोरेन को झामुमो से घाटशिला विधानसभा का टिकट मिला । लोगों को यकीन हो गया था कि, यह इंसान क्षेत्र छोड़ कर कभी ग़ायब नहीं होंगे । 2009 के विधानसभा चुनाव में घाटशिला से लोगों ने उन्हें जीत दिलाई। और आज उन्होंने राज्य के शिक्षा मंत्री का दाईत्व भी संभाले हुए हैं ।
इसे कहते हैं जूनून । वजूद कैसे बजाया और बनाया जाता है यह दस साल पहले ही इस क्षेत्र के लोग देख चुके हैं। भाजपाईयों में ऐसी जज़्बाते होनी चाहिए थी । भाजपा के वैसे कार्यकर्ता जो चुनाव से पहले पार्टी टिकट हासिल करने के लिए दौड़-भाग तो करतें है और चुनाव हार जाने या टिकट नहीं मिलने से निराश होकर कुंभकर्ण निंद्रा में चले जाते हैं । ऐसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा जाहिर है, इस राज्य में विपक्षियों पर भारी पड़ने की बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।