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जमशेदपुरः- “मजदूर दिवस पर एक स्पेशल रिपोर्ट* (रिपोर्ट: दीपक नाग)

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में मजदूरों ने अपने छुट्टी और आठ घंटे काम के मांग को लेकर 1 मई 1886 को काम रोक कर तीन दिवसीय हड़ताल पर बैठे गये थे। जिस कारण इस दिन को विश्व में मे डे के रूप मे जाना जाता है।

मजदूर दिवस तो हर साल हमारे झारखंड राज्य में भी मनता आया है पर नेताओं ने मंच में खड़े हो कर मजदूरों के हित में बखान गाता रहा और मजदूर बेचारा मजबूर और असहाय महसूस करता रहा । झारखंड राज्य के धरती मे असीम बह-मूल्य संपदाओं के होते हुए भी यहाँ हाथों को काम नही मिलता है। 15 नवम्बर 2000 मे झारखंड राज्य को अलग परिचय और नाम मिला । अपने युवा अवस्था तय करने के बाद भी
झारखंड मे युवक-युवतियों को अपने योग्यता अनुसार काम मिले, ऐसी कोई व्यवस्था बाबुलाल मरांडी से लेकर
हेमंत सोरेन की सरकार तक करने में अभी तक सफल नही दिखे ।

यही वजह है कि लाखों मजदूरों को पीछले वर्ष कोरोना के प्रारंभ काल में हेमंत सरकार को देश के अन्य राज्यों से वापस लाने का करना पड़ा था। इसके लिए सिर्फ हेमन्त सरकार ही नही, बाबुलाल मरांठी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा और रघुबर दास के सरकार भी जिम्मेदार है। पीछले एक वर्ष से कोराना के कारण ठ, ट्रेनों का आवागमन लगभग बंद पड़ा हुआ है। जल,जंगल और जमीन से पहचान रखने वाला यह राज्य गाँव बहुल है । गाँवों में कल-कारखानों का विकास किसी भी
सरकार कर न सका । इस लिए रोजगार के तलाश में लोगों को जमशेदपुर के टाटा कंपनी और आदित्यपुर इंडस्ट्रियल एरिया के कंपनिया रोजी-रोटी का एक मात्र सहारा था । पैसेंजर ट्रेनों के बंद होना पूर्वी सिंहभूम जिले के कम से कम 25 हजार कामगारों के हाथो से काम छिन लिया।
समाज सेवीयों का माने तो झारखंड में मजदूर दिवस का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हांथो में काम नही तो मजदूर कौन ?

जिस उद्देश्य को बतला कर झारखंड को अलग राज्य किया गया था। वह सारी बातें अब तक मुंगेरीलाल की हंसीन सपने बन कर रह गया है। देखना है की ये बदलती सरकार मजदूर दिवस पर मजदूरों की फिर से बोली लगाती है या युवाओं को रोजगार देकर सही मायने मजदूर दिवस पर मजदूरों के हाथों में सौगात देती है ………

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