A SPECIAL DANCE FORM “CHHAU”: “MAN BEHIND MASK”
सौ साल पहले सरायकेला के प्रसन्न कुमार महापात्र ने छऊ नृत्य
के लिये बनाया था मुखौटा; महापात्र परिवार की तीसरी पीढ़ी कर
रही है मुखौटा निर्माण।
—- मुखौटे से मिली सरायकेला छऊ को अंतरराष्ट्रीय पहचान ।
–सरायकेला व मानभूम शैली छऊ नृत्य में होता मुखौटा का उपयोग।
सरायकेला: सरायकेला को अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में यहां की विशिष्ट नृत्य कला छऊ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपनी उत्कृष्ट कला शैली के कारण सरायकेला के जीवन में रंग डालने वाले छऊ ने न सिर्फ गांव की देहरी लांघी है बल्कि इसने अपने प्रांत व देश के सरहदों के पार विभिन्न भाषा कला-संस्कृति, नृत्य एवं विचार वाले लोगों को भी प्रभावित किया है। छऊ में मुखौटा का इस्तेमाल के बाद इसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली।
या यू कहें कि आधुनिक मुखौटे से ही सरायकेला शैली के छऊ को एक अलग पहचान मिली। विश्व प्रसिद्ध छऊ नृत्य की चार शैलीयों में महत्वपूर्ण शैली है सरायकेला व मानभूम शैली के छऊ नृत्य। इन दोनो ही शैली के छऊ नृत्यों में मुखौटा का उपयोग होता है। जबकि खरसावां व मनयुरभंज शैली में मुखौटा का उपयोग नहीं होता है। छऊ का मुखौटा बनाना काफी मेहनत और बारीकी का काम होता है। मानभूम व सरायकेला शैली की छऊ नृत्य में नर्तक के नृत्य मुखौटे के सहारे नृत्य के चरित्र में समाहित हो कर उसी अंदाज में नृत्य करता है। कहा जाता है कि लगभग सौ वर्ष पूर्व सरायकेला के प्रसन्न कुमार महापात्र ने इस शैली के छऊ नृत्य के लिये मुखौटा तैयार किया था।
सरायकेला छऊ में मुखौटा को शामिल करने के बाद इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली। सरायकेला शैली में फिलहाल कई कलाकार मुखौटा तैयार करते है। मुखौटा रंग डालते समय नृत्य के चरित्र पर ध्यान दिया जाता है। इसी के अनुरुप ही मुखौटा तैयार होता है। मुखौटा के शास्त्रीय व मार्गी रुप का भी ध्यान रखा जाता है। मुखौटा के रंगाई के पश्चात चरित्र के अनुरुप ही मुकुट गहना आदि से सजाया जाता है। एक मुखौटा तैयार करने में आठ से दस दिन का समय लग जाता है।
मुखौटा पर शोध करने के लिये हर वर्ष विदेशों से सैलानी भी आते है। मुखौटा पहनने के पश्चात नर्तक को सांस रोकने की अभ्यास करनी पड़ती है। मुखौटा पहन कर नृत्य करने के लिये भी महीनों अभ्यास करना होता है, तभी नर्तक मुखौटा पहन कर नृत्य कर सकता है। मुखौटा के बगैर विश्व प्रसिद्ध मानभूम व सरायकेला शैली के छऊ नृत्य की कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
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सुशांत महापात्र आठ साल की उम्र से ही कर रहे हैं मुखौटा का निर्माण :-
सरायकेला के प्रथम मुखैटा निर्माता के प्रसन्न कुमार महापात्र के चचेरे बेटे सुशांत कुमार महापात्र आठ साल की उम्र से ही अपने बड़े पिताजी के साथ मुखौटा का निर्माण करना आरंभ किए थे। सुशांत कुमार महापात्र ने बताया कि उन्होंने आठ वर्ष की उम्र से ही अपने बड़े पिता के साथ सरायकेला शैली छऊ मुखौटा का निर्माण कर रहे थे। उन्होंने बताया कि पहले जहां बांस की टोकरी एवं अन्य साधनों को मुखौटा के रुप में प्रयोग किया जाता था। उस दौरान 1925 में उनके बड़े पिता ने मिट्टी से आधुनिक मुखौटा तैयार किया। जिसे सरायकेला शैली में शामिल किया गया गया। इसके बाद से ही मुखौटा का निर्माण होने लगा। जिसे स्थानीय भाषा में “मोहड़ा” कहा जाता है। महापात्र ने कहा कि पहले एवं आज में आसमान-जमीन का फर्क आया है। पहले जहां कलाकारों में समर्पण की भावना थी, आज उसमें थोड़ी सी कमी आई है। उन्होंने कहा कि मुखौटा निर्माण कला से भरण-पोषण संभव नहीं है। थोड़ी-बहुत आमदानी चैत्र पर्व के समय ग्रामीण क्षेत्र में छऊ नृत्य का आयोजन के दौरान मुखौटा की बिक्री होती है। महापात्र ने कहा कि विरासत में मिली इस कला को बचाए रखने की चाहत ने ही कला से जोड़े रखा है। भले ही आर्थिक परेशानी हो, परंतु कला को बचाना सबसे जरुरी है। आज महापात्र परिवार की तीसरी पीढ़ी के रूप में सुशांत कुमार महापात्र के पुत्र सुमित कुमार महापात्र बखूबी छऊ का मुखौटा गढ़ने का काम कर रहे हैं।
